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भ्रा꣡ज꣢न्त्यग्ने समिधान दीदिवो जि꣣ह्वा꣡ च꣢रत्य꣣न्त꣢रा꣣स꣡नि꣢ । स꣡ त्वं नो꣢꣯ अग्ने꣣ प꣡य꣢सा वसु꣣वि꣢द्र꣣यिं꣡ वर्चो꣢꣯ दृ꣣शे꣡ऽदाः꣢ ॥६१५

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स्वर-रहित-मन्त्र

भ्राजन्त्यग्ने समिधान दीदिवो जिह्वा चरत्यन्तरासनि । स त्वं नो अग्ने पयसा वसुविद्रयिं वर्चो दृशेऽदाः ॥६१५

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

भ्रा꣡ज꣢꣯न्ती। अ꣣ग्ने । समिधान । सम् । इधान । दीदिवः । जिह्वा꣢ । च꣣रति । अन्तः꣢ । आ꣣स꣡नि꣢ । सः । त्वम् । नः꣣ । अग्ने । प꣡य꣢꣯सा । व꣣सुवि꣢त् । व꣣सु । वि꣢त् । र꣣यि꣢म् । व꣡र्चः꣢꣯ । दृ꣣शे꣢ । दाः꣣ ॥६१५॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 615 | (कौथोम) 6 » 3 » 4 » 1 | (रानायाणीय) 6 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा का अग्नि देवता है। अग्नि नाम से परमेश्वर, आचार्य और राजा को सम्बोधित किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (समिधान) अतिशय प्रकाशयुक्त, (दीदिवः) सबको प्रकाशित करनेवाले (अग्ने) जगन्नायक परमात्मन् ! आपकी कृपा से (आसनि अन्तः) हमारे मुख के अन्दर (भ्राजन्ती) शोभित होती हुई (जिह्वा) जीभ (चरति)रसों का स्वाद लेती और शब्दों का उच्चारण करती है। (सः) वह (वसुवित्) ऐश्वर्यों को प्राप्त करानेवाले (त्वम्) आप, हे (अग्ने) परमात्मन् ! (नः) हमें (पयसा) जल, दूध, घी आदि रस के साथ (रयिम्) धन को, और (दृशे) कर्तव्याकर्तव्य के दर्शन के लिए (वर्चः) ज्ञान रूप तेज (दाः) प्रदान किये हुए हो ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। आचार्य रूप अग्नि में स्वयं को आहुत करने के लिए गुरुकुल में आये हुए समित्पाणि शिष्य कह रहे हैं—हे (समिधान) स्वयं ज्ञान से प्रदीप्त तथा (दीदिवः) शिष्यों को ज्ञान से प्रदीप्त करनेवाले (अग्ने) विद्वान् आचार्यप्रवर ! आपके (आसनि अन्तः) मुख के अन्दर (भ्राजन्ती) शास्त्रों का ज्ञान से उपदेश देने के कारण यश से जगमगाती हुई (जिह्वा) जीभ (चरति) शब्दों के उच्चारण के लिए तालु, दन्त आदि स्थानों में विचरती है। (सः) वह महिमाशाली, (वसुवित्) विविध विद्याधनों को प्राप्त करानेवाले (त्वम्) आप, हे (अग्ने) आचार्यवर ! (नः) हमारे (दृशे) कर्तव्य-दर्शन के लिए (पयसा) वेदज्ञान रूप दूध के साथ (रयिम्) सदाचार की सम्पदा को और (वर्चः) ब्रह्मवर्चस को (दाः) हमें प्रदान कीजिए ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। सिंहासन पर चढ़े हुए राजा के प्रति प्रजाजन कह रहे हैं—हे (समिधान) राजोचित प्रताप से देदीप्यमान, (दीदिवः) प्रजाओं को यश से प्रदीप्त करनेवाले (अग्ने) अग्रनायक राजन् ! (आसनि अन्तः) आपके धनुष् पर (भ्राजन्ती) दमकती हुई (जिह्वा) डोरी (चरति) चलती है अर्थात् खिंचती, छूटती और बाणों को फेंकती है। (सः) वह (वसुवित्) प्रजाओं को निवास प्राप्त करानेवाले (त्वम्) आप, हे (अग्ने) अग्नि के समान जाज्वल्यमान राष्ट्राधिपति ! (दृशे) राष्ट्र की ख्याति के लिए, प्रजा को (पयसा) दूध आदि रसों के साथ (रयिम्) धन, धान्य आदि सम्पदा और (वर्चः) ब्राह्म तेज (दाः) प्रदान कीजिए ॥ चतुर्थ—यज्ञाग्नि के पक्ष में। यजमान कह रहे हैं—हे (समिधान) प्रज्वलित, (दीदिवः) याज्ञिक को तेज से प्रज्वलित करनेवाले (अग्ने) यज्ञाग्नि ! (आसनि अन्तः) यज्ञकुण्ड रूप मुख के अन्दर (भ्राजन्ती) जगमगाती हुई (जिह्वा) तेरी ज्वाला रूप जीभ (चरति) लपलपाती है। (सः) वह (वसुवित्) हविरूप धन को प्राप्त करनेवाला (त्वम्) तू हे (अग्ने) यज्ञाग्नि ! (पयसा) वर्षाजल के साथ (रयिम्) सस्य-सम्पदा रूप तथा बल, बुद्धि, दीर्घायु आदि रूप धन को तथा (दृशे) देखने के लिए (वर्चः) प्रकाश को (दाः) प्रदान कर ॥ मुण्डक उपनिषद् के ऋषि ने अग्नि की जिह्वाएँ इस प्रकार वर्णित की हैं—काली, कराली, मन जैसे वेगवाली, अत्यन्त लाल, धुमैले रंग की, चिनगारियाँ छोड़नेवाली और सब रंगोंवाली ज्वालाएँ ये अग्नि की सात लपलपाती जिह्वाएँ हैं (मु० २।४)। अग्नि के मुख और जिह्वाओं का वर्णन करने के कारण यज्ञाग्निपरक अर्थ में असम्बन्ध में सम्बन्ध रूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे जगदीश्वर मनुष्यों को जल, दूध, घी, ज्ञान आदि और यज्ञाग्नि वृष्टि, जल, बल, बुद्धि, दीर्घायुष्य आदि देता है, वैसे ही आचार्य को शिष्यों के लिए वेदविद्या, सदाचार, ब्रह्मतेज आदि प्रदान करना चाहिए और राजा को राष्ट्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों की उन्नति द्वारा प्रजाओं को सुखी करना चाहिए ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्राद्याया अग्निर्देवता। अग्निनाम्ना परमेश्वर आचार्यो राजा च सम्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मपक्षे। हे (समिधान) अतिशयप्रकाशमान, (दीदिवः१) सर्वप्रकाशक अग्ने जगन्नायक परमात्मन् ! त्वत्कृपया (आसनि अन्तः) अस्माकं मुखाभ्यन्तरे (भ्राजन्ती) शोभमाना (जिह्वा) रसना (चरति) रसानास्वादयति शब्दानुच्चारयति च। चर गतौ भक्षणे च, भ्वादिः। (सः) तथाविधः (वसुवित्) ऐश्वर्याणां लम्भकः (त्वम्), हे (अग्ने) परमात्मन् ! (नः) अस्मभ्यम् (पयसा) जलदुग्धघृतादिरसेन सह (रयिम्) धनम्, (दृशे) दर्शनाय। अत्र दृश् धातोः ‘दृशे विख्ये च। अ० ३।४।११’ इति तुमर्थे के प्रत्ययः। (वर्चः) ज्ञानरूपं तेजश्च (दाः) अदाः, प्रत्तवानसि ॥ अथ द्वितीयः—आचार्यपक्षे। आचार्याग्नौ स्वात्मानं होतुं गुरुकुलमागताः समित्पाणयः शिष्या ब्रुवते—हे (समिधान) ज्ञानेन प्रदीप्त, (दीदिवः) ज्ञानेन प्रदीपयितः (अग्ने) विद्वन् आचार्यवर ! तव (आसनि अन्तः) मुखाभ्यन्तरे (भ्राजन्ती) शास्त्रोपदेशप्रदानेन यशोमयी (जिह्वा) रसना (चरति) शब्दोच्चारणाय तालुदन्तादिषु स्थानेषु विचरति। (सः) तादृशो महामहिमशाली, (वसुवित्) विविधविद्याधनप्रदः (त्वम्) हे (अग्ने) आचार्यवर ! (नः) अस्माकम् (दृशे) कर्तव्यदर्शनाय (पयसा) वेदज्ञानरूपदुग्धेन सह (रयिम्) सदाचारसम्पत्तिम् (वर्चः) ब्रह्मवर्चसं च (दाः) प्रदेहि ॥ अथ तृतीयः—राजपक्षे। सिंहासनारूढं राजानं प्रति प्रजानां वचनमिदम्। हे (समिधान) राजोचितप्रतापेन दीप्यमान, (दीदिवः) यशसा प्रजाः प्रदीपयितः (अग्ने) अग्रणीः राजन् ! (आसनि अन्तः) तव शरासने (भ्राजन्ती) भ्राजमाना (जिह्वा) प्रत्यञ्चा (चरति) चलति, आकृष्यते मुच्यते शरानस्यति च। (सः) तादृशः (वसुवित्) प्रजानां निवासप्रदायकः (त्वम्), हे (अग्ने) अग्निवज्जाज्वल्यमान राष्ट्राधिपते ! (दृशे) राष्ट्रस्य ख्यातये (पयसा) दुग्धादिना रसेन सह (रयिम्) धनधान्यादिसम्पदम्, (वर्चः) ब्राह्मं तेजश्च (दाः) देहि ॥ अथ चतुर्थः—यज्ञाग्निपक्षे। यजमाना आहुः—हे (समिधान) प्रदीप्यमान, (दीदिवः) तेजसा प्रदीपयितः (अग्ने) यज्ञवह्ने ! (आसनि अन्तः) यज्ञकुण्डरूपमुखाभ्यन्तरे (राजन्ती) भ्राजमाना (जिह्वा) तव ज्वाला (चरति) लेलायते। (सः) तादृशः (वसुवित्) वसु हविर्धनं विन्दते प्राप्नोतीति तथाविधः (त्वम्), हे अग्ने यज्ञवह्ने ! (पयसा) वृष्टिजलेन सह (रयिम्) सस्यसम्पद्रूपं बलबुद्धिदीर्घायुष्यादिरूपं च धनम्, (दृशे) दर्शनाय (वर्चः) प्रकाशं च (दाः) देहि। यज्ञाग्नौ हवींषि प्रयच्छन्तो वयं वृष्टिं सस्यसम्पदं बलबुद्धिस्वास्थ्यदीर्घायुष्यादिकं च लभेमहीति भावः ॥ उपनिषत्कारेण ऋषिणा वह्नेर्जिह्वा एवं प्रोक्ताः—काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ॥ मु० २।४ इति। वह्नेर्मुख- जिह्वावर्णनाद् असम्बन्धे सम्बन्धरूपोऽतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा जगदीश्वरो मनुष्येभ्यो जलदुग्धघृतज्ञानादिकं यज्ञाग्निश्च वृष्टिजलबलबुद्धिदीर्घायुष्यादिकं प्रयच्छति तथैवाचार्येण शिष्येभ्यो वेदविद्यासदाचारब्रह्मवर्चसादिकं प्रदेयम्, नृपेण च राष्ट्रे ब्रह्मक्षत्रविशामुत्कर्षेण प्रजाः सुखयितव्याः ॥१॥

टिप्पणी: १. दीदिवः प्रकाशमयानन्दप्रद। अत्र दिवु धातोः ‘छन्दसि लिट्’। अ० ३।२।१०५ इति लिट्, ‘क्वसुश्च’। अ० ३।२।१०७ इति लिटः स्थाने क्वसुः, छन्दस्युभयथा। अ० ३।४।११७ इति लिडादेशस्य क्वसोः सार्वधातुकत्वादिडभावः, ‘तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य’। अ० ६।१।७ इत्यभ्यासदीर्घः, ‘मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि’। अ० ८।३।१ इति रुरादेशश्च—इति य० ३।२६ भाष्ये द०।